टोक्यो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीमों के प्रदर्शन से यह तो पता चल गया है कि हमारी हॉकी फिर से अपने खोए गौरव की तरफ मज़बूत कदम बढ़ा सकती है। ख़ासकर, पुरुष टीम ने शुरुआती झटके के बाद जिस रफ़्तार से कांस्य पदक तक का सफ़र तय किया उसे देख कर तो यही लगा कि आस्ट्रेलिया और यूरोपीय टीमों की तुलना में हम ज़्यादा पीछे नहीं चल रहे। महिला टीम ने भी अपनी विश्व रैंकिंग से आगे बढ़ चढ़ कर प्रदर्शन किया और चौथा स्थान अर्जित कर अपनी हैसियत में इज़ाफ़ा किया है। लेकिन यह कहना की भारतीय हॉकी फिर से श्रेष्ठता की दौर में शामिल हो गई है, फिलहाल जल्दबाज़ी होगी।
हॉकी जानकारों , विशेषज्ञों, पूर्व खिलाड़ियों और कोचों का मानना है कि अभी हमें किसी भी प्रकार की ग़लत फ़हमी और भविष्यवाणी से बचना चाहिए और कम से कम 2024 के पेरिस ओलम्पिक तक इंतज़ार करना चाहिए। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि टोक्यो ओलम्पिक महामारी के चलते आयोजित किया गया, जिसमें अधिकांश खेलों के कई स्टार खिलाड़ी भाग लेने नहीं आए
कोरोना के डर से कई खिलाड़ी पर्याप्त अभ्यास नहीं कर पाए। हमारे खिलाड़ियों को भी अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा लेकिन अपनी लड़ाकू और जुझारू प्रवृति के चलते भारतीय खिलाड़ियों ने तमाम टीमों को हैरान परेशान किया।
यह टोक्यो ओलम्पिक के प्रदर्शन का ही कमाल है कि सभी देश हमें गंभीरता से लेने लगे हैं। हार ना मानने की जिद्द के चलते हमारे खिलाड़ी इस बार के ओलम्पिक में सबसे ज़्यादा चर्चा में रहे। उनके हर पास, टैकल, पेनल्टी कार्नर, गोल, स्पीड स्टेमीना और सबसे बढ़कर टीम स्प्रिट की चौतरफ़ा प्रशंसा हुई लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम यह मान लें कि भारतीय हॉकी ने फिर से वही मुकाम पा लिया है जहाँ सात ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीतने के बाद ठिठक गए थे। हालाँकि 1980 के मास्को ओलम्पिक में भी विजेता बने लेकिन तब बड़ी हॉकी ताकतों ने बायकाट किया था।
भारतीय हॉकी के लिए बड़ी बात यह है कि अब खिलाड़ियों को उड़ीसा सरकार का संपूर्ण समर्थन और सहयोग मिलेगा। उड़ीसा ने दस साल तक के लिए भारतीय हॉकी को गोद लिया है। सरकार, हॉकी इंडिया और विदेशी कोच खिलाड़ियों की मदद के लिए तैयार हैं। खिलाड़ियों का मनोबल उँचा है। लेकिन अत्यधिक आत्मविश्वास से बचने और डरने की ज़रूरत है। अगले ओलम्पिक में टोक्यो का पदक बरकरार रखा तो भी चलेगा। ओलम्पिक से पहले एशियाड और वर्ल्ड चैंपियनशिप के नतीजे मनोबल बढ़ाने का काम करेंगे।