अहिंसा रूपी विद्रोह से महान बने थे महात्मा गांधी

डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट | पब्लिक एशिया
Updated: 01 Oct 2023 , 16:04:37 PM
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डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
   दक्षिण अफ्रीका का पीटरमारित्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन का वह ख़ाली प्लेटफॉर्म,जो 19वीं सदी की विक्टोरियन स्टाइल की लाल ईंटों वाली इमारत का भाग है,उसकी ज़ंग खा रही जालियां और लकड़ी की बनी टिकट खिड़की, आज भी उस युग की याद दिलाता है।जिस युग मे भारतीय बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी को स्वयं में परिवर्तन करने का अवसर मिला ।इसी परिवर्तन ने उनमें प्रतिवाद की शक्ति पैदा की और उन्हें अहिंसा का बेताज बादशाह बनाया।पीटरमारित्ज़बर्ग नाम के
इस मामूली से रेलवे स्टेशन को देखकर लगता ही नहीं कि ये वह स्थान है, जिसने भारत को बदल डाला और दुनिया के इतिहास में एक नया स्वर्णिम पन्ना जोड़ दिया।यह घटना 7 जून सन 1893 की है। उस समय युवा बैरिस्टर रहे मोहनदास करमचंद गांधी रेलगाड़ी द्वारा डरबन से प्रिटोरिया जा रहे थे।वे अपने मुवक्किल अब्दुल्लाह के काम से  वहां जा रहे थे। जब उनकी ट्रेन पीटरमारित्ज़बर्ग पर रुकी, तो ट्रेन के कंडक्टर ने उन्हें फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे से निकल जाने को कहा।उस दौरान दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन का पहला दर्जा गोरे लोगों के लिए रिज़र्व हुआ करता था।
ट्रेन के अंग्रेज़ कंडक्टर ने गांधी को निचले दर्जे के यात्रियों  के डब्बे में जाने को कहा, जब गांधी ने कंडक्टर को अपना पहले दर्जे का टिकट दिखाया, तो भी वह नही माना और मोहनदास करमचंद गांधी को बेइज़्ज़त कर के ट्रेन से धक्का देकर ज़बरदस्ती उतार दिया।पीटरमारित्ज़बर्ग के प्लेटफॉर्म पर आज भी लगी एक तख़्ती ठीक उस जगह को बताती है, जहां पर गांधी जी को ट्रेन से धक्का देकर उतारा गया था। तख़्ती पर लिखा है कि, 'उस घटना ने महात्मा गांधी की ज़िंदगी का रुख़ मोड़ दिया था।'
महात्मा गांधी ने ट्रेन से उतार देने पर वह सर्द रात पीटरमारित्ज़बर्ग के वेटिंग रूम में गुज़ारी थी, जहां पर मौसम से बचने के लिए कोई इंतज़ाम नहीं था।महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में उक्त घटना का उल्लेख करते हुए , 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में लिखा है कि, 'मेरे संदूक़ में मेरा ओवरकोट भी रखा था,लेकिन मैंने इस डर से अपना ओवरकोट नहीं मांगा कि कहीं मुझे फिर से बेइज़्ज़त न किया जाए।'
महात्मा गांधी बम्बई से सन 1893 में वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे।उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के एक कारोबारी की कंपनी के साथ एक साल का वकालत के लिए क़रार किया था। ये कंपनी ट्रांसवाल इलाक़े में थी।ट्रांसवाल दक्षिण अफ्रीका का वह इलाक़ा था, जहां 17वीं सदी में डच मूल के लोगों ने आकर क़ब्ज़ा कर लिया था। ब्रिटेन ने ट्रांसवाल के दक्षिण में स्थित केप कॉलोनी को हॉलैंड के उपनिवेशवादियों से छीन लिया था, जिसके बाद वह मजबूर हो गए कि यहां आकर बस गए थे।सन 1860 में भारत सरकार के साथ हुए एक करार के तहत ट्रांसवाल की सरकार ने वहां भारतीयों को इस शर्त पर आकर बसने में सहयोग करने का वादा किया, कि भारतीय मूल के लोगों को वहां के गन्ने के खेतों में बंधुआ मज़दूरी करनी होगी।मज़दूरी का समय गुज़ार लेने पर भी भारतीय मूल के लोगों को समाज के अन्य वर्गों से मेल-जोल करने नहीं दिया जाता था। उन्हें बाहरी माना जाता था।उस समय गोरों की अल्पसंख्यक सरकार, भारतीयों पर सबसे ज़्यादा टैक्स लगाती थी।इसी कारण दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर महात्मा गांधी को भी नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़ा था।प्रिटोरिया जाने के दौरान यात्रा में पहले भी गांधी जी के साथ एक घटना डरबन में हुई थी।  एक अदालत के जज ने उनसे पगड़ी उतारने को कहा था, जिसपर गांधी जी बिना पगड़ी उतारे अदालत से बाहर आ गए थे।लेकिन गांधी जी के जीवन में व्यापक बदलाव पीटरमारित्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन पर हुई घटना के बाद ही आया।तब महात्मा गांधी ने फ़ैसला किया था कि वे दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ेंगे।
अपनी आत्मकथा में महात्मा गांधी ने लिखा भी है कि, 'ऐसे मौक़े पर अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के बजाय भारत लौटना कायरता होगी,यह रंगभेद की गंभीर बीमारी के लक्षण थे। उन्होंने तय किया था कि इस रंगभेद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर लोगों को रंगभेद की बीमारी से बचाने के लिए उन्हें  कोशिश तो करनी ही चाहिए.'
 शाइनी ब्राइट कहते हैं कि, 'महात्मा गांधी के लिए ये मौक़ा ज्ञान प्राप्त करने का था। इससे पहले वह एक शांत और कमज़ोर इंसान थे,'पीटरमारित्ज़बर्ग की घटना के बाद गांधी जी ने भेदभाव के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया। वे शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीक़े से रंगभेदी नीतियों के ख़िलाफ़ आंदोलन करने लगे थे।
उन्होंने हड़ताल, विरोध-प्रदर्शन और धरनों के ज़रिए वोटिंग और काम करने में रंगभेद के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की, महात्मा गांधी को यक़ीन था कि दक्षिण अफ्रीका में रहकर ही उन्हें रंगभेद के सबसे ख़ौफ़नाक चेहरे को देखने का मौक़ा मिल सकता था। तभी वे इसका मुक़ाबला कर उस पर जीत हासिल कर सकते थे।
दक्षिण अफ्रीका में अपने तजुर्बे के आधार पर ही गांधी जी ने अहिंसा के हथियार सत्याग्रह की शुरुआत की थी।जिसमें अहिंसक तरीक़ों से विरोध कर जीत हासिल करने की कोशिश होती थी।ताकि संघर्ष के दौरान दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बना रहे।सन1907 में जब ट्रांसवाल की सरकार ने एशियाटिक लॉ अमेंडमेंट एक्ट बनाया तो गांधी जी ने इसके ख़िलाफ़ अहिंसक आंदोलन छेड़ दिया था।इस क़ानून के तहत भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में अपना रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य कर दिया गया था। आंदोलन के दौरान गांधी को कई बार जेल जाना पड़ा था। लेकिन, आख़िर में वह गोरों की सरकार से समझौता कराने में कामयाब हो गए थे।सन 1914 में इंडियन रिलीफ़ एक्ट पास कर के भारतीयों पर अलग से लगने वाला टैक्स भी ख़त्म किया गया,जो एक बड़ी जीत थी और इससे भारतीयों की शादी को भी सरकारी मान्यता मिलने लगी थी।
सन 1914 में भारत लौटने के बाद महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ सत्याग्रह शुरू कर भारतीयों के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा ख़त्म कराई। इसे पहले विश्व युद्ध में भारतीयों को युद्ध लड़ने के लिए मजबूर किया जाता था। महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का अमरीकी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग पर गहरा असर पड़ा था। नेल्सन मंडेला को भी गांधी से खास प्रेरणा मिली।पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, मदर टेरेसा ही नही देश दुनिया की अनेक हस्तियों ने उनके अहिंसा मंत्र का लौहा माना।उनकी विराटता को स्वीकार करके ही महात्मा गांधी की याद में दक्षिण अफ्रीका ने फ्रीडम ऑफ़ पीटरमारित्ज़बर्ग नाम से पुरस्कार शुरू किया,इस पुरुस्कार को लेते हुए नेल्सन मंडेला ने कहा था, 'सहिष्णुता, आपसी सम्मान और एकता के जिन मूल्यों के लिए गांधी ने संघर्ष किया, उसने मेरे ऊपर गहरा असर डाला है। इसका हमारे स्वतंत्रता आंदोलन ही नहीं, मेरी सोच पर भी बहुत असर पड़ा।'दक्षिण अफ्रीका का यह रेलवे स्टेशन भारतीयों के लिए एक तीर्थस्थल की तरह है। दक्षिण अफ्रीका आने वाले बहुत से भारतीय यहां गांधी को श्रद्धांजलि देना नही भूलते।आध्यात्मिक संत सतपाल महाराज ने तो इसी स्टेशन के उसी प्लेटफार्म पर गांधी जी की प्रतिमा लगवाई जहां कभी उनका अपमान हुआ था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सन 2016 में यहां मेहमानों की नोटबुक में लिखा कि, 'पीटरमारित्ज़बर्ग में हुई एक घटना ने भारत के इतिहास का रुख़ ही बदल दिया।'
स्टेशन के छोटे से वेटिंग रूम में उस घटना की याद में एक म्यूज़ियम बनाया गया है। इसके ज़रिए लोगों को सन 1893 की सर्द रात की उस घटना की दास्तान बतायी जाती है। यहां पर उस घटना से जुड़े दस्तावेज़ और गांधी की बैरिस्टर वाली तस्वीर भी मौजूद है।ब्राइट कहते हैं कि आज भी यहां आने वाले कई भारतीयों की आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं।पीटरमारित्ज़बर्ग स्टेशन दक्षिण अफ्रीका के क्वाज़ुलू-नटाल सूबे में पड़ता है। इसका मुख्य स्टेशन अभी भी विक्टोरिया के युग जैसा ही है।आज भी वैसा ही दिखता है, जैसा गांधी जी के समय में दिखता होगा।जून सन 2018 में महात्मा गांधी के साथ हुई उस घटना की 125वीं सालगिरह पर तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी पीटरमारित्ज़बर्ग गई थीं। उन्होंने महात्मा गांधी के दौर सरीखी ट्रेन में पेंट्रिच से पीटरमारित्ज़बर्ग तक का सफ़र भी किया था। पीटरमारित्ज़बर्ग पहुंचने पर स्वराज ने स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर लगी महात्मा गांधी की मूर्ति का अनावरण भी किया था।इस मूर्ति को हैदराबाद के महात्मा गांधी डिजिटल म्यूज़ियम में डिज़ाइन किया गया था। इसमें गांधी को युवा बैरिस्टर के रूप में दिखाया गया है, जो सूट और टाई पहने हुए हैं,साथ ही इस मूर्ति के दूसरे रुख में उन्हें चश्मा लगाए हुए बुज़ुर्ग के तौर पर दिखाया गया है जिन्होंने धोती पहन रखी है।आज भी दक्षिण अफ्रीका में सबसे ज़्यादा भारतीय मूल के लोग रहते हैं। आज दूसरी और तीसरी पीढ़ी के भारतीय मूल के लोग यहां कारोबार,नोकरी व नेतृत्व भी करते हैं।(लेखक गांधीवादी चिंतक व वरिष्ठ पत्रकार है)
डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
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