इंटरनेट बिना अधूरा लगता है जीवन:विजय गर्ग

विजय गर्ग पूर्व पीईएस | पब्लिक एशिया
Updated: 07 Oct 2021 , 12:42:44 PM
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 आज बिना इंटरनेट जीवन अधुरा लगता है। इंटरनेट हमारी दिनचर्या में पूरे तोर पर घुलमिल गया है। भारत में इंटनेट को 26 साल पूरे हो चुके हैं। जी हां, 15 अगस्त 1995 में देश में पहली बार इंटरनेट का इस्तेमाला हुआ था। देश में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इस वर्ष मार्च तिमाही में बढ़कर 82.53 करोड़ हो गई जबकि दिसंबर 2020 की तिमाही में यह 79.51 करोड़ थी।
कोरोना संकट में पिछले डेढ़ साल से ऑनलाइन शिक्षा के नाम पर बच्चों के हाथों में मोबाइल थमा दिया गया है। इसी के साथ बन्ने आभासी दुनिया में खो गए है। पढ़ाई का शुनाशुना खत्म होते ही बच्चों के हाथ तरहतरह के गेम लग गए है। अब ये गेम ही उनकी दीन दुनिया हो गयी है। 

ऑनलाइन गेम खेलने में व्यस्त बच्चों खाना-पीना तक भूलने लगे। इस कारण वे इंटरनेट गेमिंग एडिक्शन का शिकार हो रहे हैं। यह समस्या एक घर की नहीं अपितु घर घर की हो रही है। आज स्थिति यहाँ तक आन पड़ी है की बच्चों के हाथ से मोबाइल छीनते ही वे बेचैनी महसूस करते है। गुस्से से भर जाते है। चिड़चिड़े हो जाते है। घर के किसी काम में कोई रुचि नहीं लेते है। अभिभावकों के लाख टोकने और डांटने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। गेमिंग का यह चक्रव्यूह बच्चों का भविष्य कहाँ लेकर जायेगा यह बताने की स्थिति में कोई नहीं है।

इंटरनेट क्रांति ने सूचना तकनीक के क्षेत्र में जहां नए आयाम स्थापित किये है वहां इसके दुष्परिणामों से भी दो दो हाथ करने पड़ रहे है। उनका बचपन और शैक्षिक जीवन इंटरनेट के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों से सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरकी की है उसने छात्रों की जीवनशैली को ही बदल डाला है। बच्चे और युवा एक पल भी स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नाहीं समझते।

इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता है। मौजूदा दौर में बच्चों में खेलकूद और पढाई का स्थान इंटरनेट ने ले लिया है। इसका सीधा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर पड़ा है। शहरों के साथ अब गांवों में भी मोबाइल की पहुंच होने से बच्चों में इंटरनेट की लत बढ़ गई है। इससे उनमें संवादहीनता का खतरा बढ़ रहा है।

देश में इंटरनेट के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल में बचपन खोता जा रहा है जिसकी परवाह न सरकार को है और न ही समाज इससे चिंतित है। ऐसा लगता है जैसे गैर जरूरी मुद्दे हम पर हावी होते जारहे है और वास्तविक समस्याओं से हम अपना मुंह मोड़ रहे है। यदि यह यही हालता रहा तो हम बचपन को बर्बादी की कगार पर पहुंचा देंगे। देश के साथ यह एक बड़ी नाइंसाफी होगी जिसकी कल्पना भी हमें नहीं है। जब से इंटरनेट हमारे जीवन में आया है तबसे बच्चे आभासी दुनियां में खो गए है। बाजार ने इंटरनेट पर इतना कुछ दे दिया है कि वह पढ़ने के अलावा बहुत कुछ इंटरनेट पर करते रहे हैं। आजकल के बच्चों इंटरनेट लवर हो गए हैं। इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है।






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