ऐसी होती है स्त्रियाँ

दीपाली कालरा | पब्लिक एशिया
Updated: 21 Sep 2021 , 12:33:03 PM
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आज जिस इंसान पर कोई स्त्री आग-बबूला हो रही है, कल उसी के लिए नम आंखों से दुआ मांगती दिखेगी. क्योंकि उसे परवाह है क्या अच्छा है उसके लिए।क्रोध उस खिसियाहट का परिणाम है कि अपनों को उसकी परवाह क्यों नहीं? ये प्रेम है उसका.
"जाओ, अब तुमसे कभी बात नहीं करुंगी" कहकर दस सेकंड बाद ही सन्देश भेजेगी, "सॉरी यार, " क्योंकि वो आपके बिना रह ही नहीं सकती, उसे क़द्र है आपकी उपस्थिति की. ये रिश्तों को निभाने की ज़िद है उसकी.
रात भर सिरहाने बैठ बीमार बच्चे का माथा सहलाती है, कभी अपनी नींदों का हिसाब नहीं लगाती. ममता है उसकी.हिसाब से घर चलाते हुए, भविष्य के लिए पैसे बचाती है और एक दिन वो सारा धन बेहिचक किसी जरूरतमंद को दे आती है. दयालुता है उसकी.
कोई उसकी मदद करे न करे, लेकिन वो सबकी मदद को हमेशा तैयार रहती है. संवेदनशीलता है उसकी.
अपने आंसू भीतर ही समेटकर, दूसरों की आंखें पोंछ उन्हें दिलासा देती है. दर्द को समझने की शक्ति है उसकी.
अपनों के लिए ढाल बनकर दुश्मन के सामने खड़ी हो जाती है. हिम्मत है उसकी.
एक हद तक सफाई देती है, फिर मौन हो जाती है. गरिमा है उसकी.  
मम्मी, बेटी, गुड़िया, सुनो, दीदी, बुआ, मामी, मासी,चाची और ऐसे ही अनगिनत नामों-रिश्तों के बीच खोई हुई कभी फ़ुरसत के कुछ पलों में अति औपचारिक ढंग से तैयार किये गए स्कूली प्रमाण-पत्रों में अपना नाम पढ़कर खुद को पुकार लेती है. स्वयं की तलाश में, खोयी रही अब तक....कुछ ऐसी ही ज़िन्दगी है उसकी. मेरे लिए स्त्री का यही पर्याय है.आज भी भारत में ऐसे लोग है जो महिला को सम्मान नही सिर्फ दुत्कारते है।
'स्त्री' ईश्वर की गढ़ी वह खूबसूरत कृति है, जिसके बिना सृष्टि की कल्पना ही नहीं की जा सकती. ये वो धुरी है जिसके गर्भ में जीवन पनपता है. नारी, 'नर' की महिमा है, गरिमा है, ममता की मूरत है, अन्नपूर्णा है, कोमल भाषा है, निर्मल मन और स्वच्छ हृदय है, समर्पिता है. और इन सबसे भी अहम बात वो सिर्फ़ एक ज़िस्म ही नहीं, उसमें जां भी बसती है. ज्यादा कुछ नही बस अपने हिस्से के सम्मान की हक़दार है वो.
स्त्रियाँ, कुछ भी बर्बाद
 नही होने देतीं।
वो सहेजती हैं।
संभालती हैं।
ढकती हैं।
बाँधती हैं।
उम्मीद के आख़िरी छोर तक।
कभी तुरपाई कर के।
कभी टाँका लगा के।
कभी धूप दिखा के।
कभी हवा झला के।
कभी छाँटकर।
कभी बीनकर।
कभी तोड़कर।
कभी जोड़कर।
देखा होगा ना?
अपने ही घर में उन्हें
खाली डब्बे जोड़ते हुए। 
बची थैलियाँ मोड़ते हुए।
 बची रोटी शाम को खाते हुए।
दोपहर की थोड़ी सी सब्जी या चावल में तड़का लगाते हुए।
दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए।
बचे हुए खाने से अपनी थाली सजाते हुए।
फ़टे हुए कपड़े हों।
टूटा हुआ बटन हो।
 पुराना अचार हो।
सीलन लगे बिस्किट,
चाहे पापड़ हों।
डिब्बे मे पुरानी दाल हो।
गला हुआ फल हो।
मुरझाई हुई सब्जी हो।
या फिर
तकलीफ़ देता " रिश्ता "
वो सहेजती हैं।
संभालती हैं।
ढकती हैं।
बाँधती हैं।
उम्मीद के आख़िरी छोर तक...
इसलिए ,
 आप अहमियत रखिये
वो जिस दिन मुँह मोड़ेंगी
तुम ढूंढ नहीं पाओगे...।
दीपाली कालरा
नई दिल्ली




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