आज की राजनीति ने देश के हर नागरिक को चिंता की नदी में धकेल दिया है। प्रायः देखा गया है कि पूरे का पूरा मौहल्ला एक गुण्डे से डरता है और मौहल्ले के लोग उससे बच-बच कर चलते हैं, उसकी हर नाज़ायज़ बात मजबूरी में मानते हैं। ठीक उसी तरह एक नेता के क्षेत्र के लोग अधिकतर नेता की बात मानते हैं, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। इस सबका कारण है एक गुट, एक झुण्ड, एक विशेष भीड़ जो हर वक्त उसके साथ बनी रहती है और आप सभी जानते हैं कि भीड़ क्या क्या कर सकती है- रास्ते जाम कर किसी बीमार व्यक्ति को एम्बुलेंस में ही दम तोड़ने को मज़बूर कर सकती है, किसी गर्भवती महिला का प्रसव एम्बुलेंस के फर्श पर ही करा सकती है।
जाम में फंसी वाहनों की भीड़ भी ऐसे में असहाय हो जाती है, किसी की मदद करने में। और यह सब बातें अब आम आदमी की आये दिन की जिंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं। आदमी अब सोचने लगा है कि उसकी दाद-फरियाद भी बेमानी है। उच्चतम न्यायालय कभी-कभी स्वयं संज्ञान लेकर कोई आदेश पारित कर भी दे तो उसे लागू कौन कराये। सो काल्ड किसानों के विषय में उच्चतम न्यायालय ने एक टिप्पणी की थी कि जब ये तीन कृषि कानूनों का मामला न्यायालय में विचाराधीन है तो इस आंदोलन का औचित्य क्या है ? तो यह प्रश्न बस प्रश्न ही रहा। इसका कहीं पर भी कोई उत्तर नहीं है।
आज अपने देश के सबसे बड़े किसान नेता (लोग ऐसा कहते हैं) श्री महेन्द्र सिंह टिकैत ने आज फिर घोषणा कर दी है कि 18 अक्टूबर को हम रेल रोकेंगे।
अब देश या प्रदेश की सरकार उनका कुछ बिगाड़ सकती है तो बिगाड़ ले। उस प्रदेश या केन्द्र की सरकार इस मामले में बेचारी है। क्योंकि यदि उसने कोई कार्यवाही की तो एक और खीरी काण्ड हो जाएगा और साथ ही उसका वोट बैंक भी खिसक जाएगा।
टिकैत साहब की भीड़ में कुछ लोग ‘भिण्डरावाले’ की छपी हुई टी-शर्ट पहने और खालिस्तानी झण्डे में डण्डा लिए घुस जाएंगे और फिर कोई चाहे न चाहे, वे दो-चार हत्यायें तो कर ही जाएंगे। जिसे टिकैत साहब का मोर्चा कहेगा कि ये उनके लोग नहीं थे, ये तो असामाजिक तत्व थे। जिन्हें रोकने की जिम्मेवारी सरकार की थी, हम इसमें कहाँ जिम्मेवार हैं ? अरे भई जो 26 जनवरी को लालकिले पर हुआ था, वे भी हमारे किसान नहीं थे। हम तो केवल भीड़ जुटाते हैं, शेष हमारा काम तो ये असामाजिक तत्व ही करते हैं।
अब 18 तारीख को जगह-जगह रेल रोकी जाएंगी, जनता अपनी रक्षा स्वयं करे। अपनी रिजर्व कराई गई टिकट को कैंसिल कराए, किसी अपने की अंतिम क्रिया में भाग लेने जाना अगर जरूरी है तो बस या ट्रक आदि में बैठकर चली जाए। हम तो अपना “अहिंसक” आंदोलन करके ही रहेंगे। हम तो गांधी जी के अनुयायी हैं, हमें हिंसा से क्या मतलब। अब इसमें कोई संसार छोड़कर चला जाए तो चला जाए। जब तक सरकार तीन कृषि कानूनों को समाप्त नहीं करती तब तक हम अपना आंदोलन जारी रखेंगे।
और फिर हमें चिंता किस बात की है। आदमी को जीवित रहने के लिए तीन चीजों की जरूरत होती है- रोटी, कपड़ा, और मकान। ये तीनों चीजें हमें हमारे दिल्ली की सीमाओं पर लगे मोर्चों को निशुल्क मिल रही हैं। भला हो उन 14 विपक्षी पार्टियों का जो हमारे इस आन्दोलन को सफल बनाने में मददगार हैं।
हम सरकार से तीन कानूनों पर वार्ता करने को तैयार हैं लेकिन सरकार पहले तीनों कानूनों को निरस्त कर दे। फिर जो बचेगा हम उस पर वार्ता कर लेंगे। यह मत है किसान नेताओं का। सरकार से बात कर यह बताने को कोई तैयार नहीं है कि इन तीनों कानूनों में जो-जो गलत है, काला-काला है उसे हटा दे।
अब उनका कहना है- हमें तो जो करना है करेंगे और सरकार को जो करना है करे।
जब भी कोई हारता है, वह अपनों से ही हारता है।