खत्म करनी होगी आतंकियों के समर्थन में सियासी नेतागिरी

प्रेम शर्मा | पब्लिक एशिया
Updated: 20 Sep 2020 , 16:04:02 PM
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कश्मीर की शांत वादियों में आतंकियों का खूनी खेल किसी से छूपा नही है,सेना सौ मारती है, फिर सौ पैदा हो जाते है। कश्मीर ही नही अब तो इन्होंने लगभग हर राज्य में अपनी घुसपैठ बना ली है। कुछ समय पहले ही बेंगलुरु में इस्लामिक स्टेट के खुरासान गुट के लिए काम करने वाले एक डॉक्टर को गिरफ्तार किया गया था। तथ्य यह भी है कि भारत के विभिन्न हिस्सों से अफगानिस्तान और सीरिया गए कई आतंकी मारे भी जा चुके हैं। इनमें से कई अच्छे-खासे पढ़े-लिखे और संपन्न परिवारों के थे।


बहुत दिन नहीं हुए जब भारत की एक पहचान यह भी थी कि दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश होने के बावजूद एक भी मुस्लिम अल कायदा का सदस्य नहीं है। लेकिन स्थिति किस तरह बदल गई। राष्ट्रीय जांच एजेंसी यानी एनआइए की ओर से केरल और बंगाल में इस आतंकी संगठन के नौ सदस्यों की गिरफ्तारी इसका ताजा प्रमाण है। ऐसे तत्वों की गिरफ्तारी का यह पहला मामला नहीं। अल कायदा के साथ-साथ एक अन्य खूंखार आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट के आतंकी भी गिरफ्तार किए जा चुके हैं। प्राय ः हिन्दुस्तान में देखा गया कि जब भी सबूतों और प्रमाणों के आधार पर कोई आतंकी पकड़ा जाता धर्म की दुहाई देकर विपक्ष दलों के नेता सियासत शुरू कर देते है। अब जबकि केरल और बंगाल में पकड़े गए आतंकियों से एनआईए को पुख्ता प्रमाण मिल रहे है तो निश्चित तौर पर इन आतंकियों के समर्थन में सियासी नेतागिरी आत्मघाती साबित होगी।


पिछले दिनों केरल और बंगाल से गिरफ्तार आतंकी भी शिक्षित बताए जा रहे हैं। इसका मतलब है कि इस मिथ्या धारणा के लिए अब कोई स्थान नहीं रह गया है कि जहालत और गरीबी मुस्लिम युवाओं को आतंकवाद की ओर मोड़ रही है। वास्तव में यह मजहबी कट्टरता और धर्माधता है, जो जिहादी आतंकवाद को खाद-पानी दे रही है। इसमें एक बड़ी भूमिका इंटरनेट और खासकर सोशल मीडिया निभा रहा है। ज्ञात होगा कि पिछले दिनों मुस्लिम युवाओं को आतंक की राह पर धकेलने वाली लश्कर ए तैयबा की महिला आतंकी के खिलाफ कोलकाता की एनआईए कोर्ट में चार्जशीट दायर की है. इसके साथ ही महिला आतंकी से जुड़े कई सबूत भी जमा किए हैं।एनआईए के मुताबिक लश्कर-ए-तैयबा की संदिग्ध सदस्य तानिया परवीन सोशल मीडिया पर विभिन्न आतंकवादी संगठनों के संपर्क में थी। अपने 850 पन्नों के आरोप पत्र में एनआईए ने कहा कि आरोपी महिला आतंकी पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के एक कॉलेज में पढ़ती है. आरोप है कि वह सोशल मीडिया पर 70 जिहादी समूहों के संपर्क में थी।भले ही सोशल मीडिया कंपनियां आतंकी तत्वों को हतोत्साहित करने की नीति पर चलने का दावा करती हों, लेकिन सच यह है कि उनका ऐसे तत्वों पर कहीं कोई अंकुश नहीं। कभी-कभी तो यह लगता है कि इसमें उनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं कि आतंकी गुट उनका फायदा न उठाने पाएं। यह किसी से छिपा नहीं कि किस्म-किस्म के आतंकी समूह और उनके समर्थक सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। केरल और बंगाल से गिरफ्तार आतंकी सोशल मीडिया के जरिये ही पाकिस्तान स्थित अपने आकाओं से जुड़े थे। इस बारे में जरूरी जानकारी अंतरराष्ट्रीय समुदाय और विशेष रूप से एफएटीएफ को उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इस संगठन को उस रपट से भी परिचित कराया जाना चाहिए, जो यह कहती है कि खालिस्तानी आतंकवाद के पीछे पाकिस्तान का हाथ है, लेकिन इसी के साथ घरेलू मोर्चे पर राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नेताओं को उन कारणों का निवारण करने के लिए आगे भी आना होगा, जो आतंक की जमीन तैयार कर रहे हैं।यह ठीक नहीं कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से आतंकी संगठनों के प्रति मुस्लिम युवाओं के झुकाव की या तो अनदेखी कर दी जाती है या फिर उन्हें बेगुनाह बताने का अभियान छेड़ दिया जाता है। वास्तव में इसी रवैये के कारण देश के कुछ हिस्सों में आतंकियों की जमीन तैयार हो रही है।दुनियाभर में यदि कहीं पर भी आतंकवाद है तो उसके पीछे इस्लाघ्म की सुन्नी विचारधारा के अंतर्गत वहाबी और सलाफी विचारधारा को दोषी माना जाता है। इनका मकसद है जिहाद के द्वारा धरती को इस्लामिक बनाना। आतंकवाद अब किसी एक देश या प्रांत की बात नहीं रह गया है। यह अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गठजोड़ कर चुका है और इसके समर्थन में कई मुस्लिम राष्ट्र और वामपंथी ताकतें हैं। सऊदी, सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, कुर्दिस्तान, सूडान, यमन, लेबनान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया और तुर्की जैसे इस्लामिक मुल्क इनकी पहानगाह हैं।इस्लामिक आतंकवाद की समस्या व उसकी जड़ के असली पोषक तत्व सिर्फ सऊदी अरब, चीन, ईरान ही नहीं हैं। इनके समर्थक गैर-मुस्लिम मुल्कों में वामपंथ, समाजसेवी और धर्मनिरपेक्षता की खोल में भी छुपे हुए हैं। इनके कई छद्म संगठन भी हैं, जो इस्लामिक शिक्षा और प्रचार-प्रसार के नाम की आड़ में कार्यरत हैं। अल कायदा, आईएस, तालिबान, बोको हराम, हिज्बुल्ला, हमास, लश्कर-ए-तोइबा, जमात-उद-दावा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, हरकत उल जेहाद-ए-इस्लामी, अल शबाब, हिजबुल मुजाहिदीन, अल उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट अॉफ इंडिया (सिमी), दीनदार अंजुमन, अल बदर, जमात उल मुजाहिदीन, दुख्तरान-ए-मिल्लत और इंडियन मुजाहिदीन जहां इस्लाम की एक विशेष विचारधारा से संबंध रखते हैं वहीं इस्लामिक मुल्कों को छोड़कर हर देश में कम्युनिस्ट या साम्यवादी विचारधारा की आड़ में भी ये संगठन पल और बढ़ रहे हैं।एक और जहां मुस्लिम मुल्कों में हिन्दू, ईसाई, बौद्ध आदि अल्पसंख्घ्यकों पर हमले करके उन्हें वहां से खदेड़ा जा रहा है वहीं दूसरी और गैर-मुस्लिम मुल्कों के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में दहशत और आतंक का माहौल बनाकर वहां से भी गैर-मुस्लिमों, ईसाइयों, बौद्धों, शियाओं, अहमदियों आदि को खदेड़े जाने की साजिश पिछले कई वर्षों से जारी है। भारत की बात करें तो पूर्वोत्तर, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में ऐसे कई ग्रुप सक्रिय हैं जिन्हें नक्सलवादी, माओवादी या लेनिन-मार्क्सवादी लिबरेशन फ्रंट कहा जाता है। आतंकवाद के खात्मे की जितनी जिम्मेदारी गैर-मुस्लिमों की है, उससे ज्यादा मुस्लिमों की है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में आतंक की आग सबसे ज्यादा भड़की हुई है। वहां कौन-से ईसाई, यहूदी या हिंदू मारे जा रहे हैं? मारनेवाले और मरनेवाले, दोनों ही मुस्लिम है। यह ठीक है कि गैर-मुस्लिम देशों में मुस्लिम बहुत कम मारे जाते हैं, लेकिन आतंक का सबसे ज्यादा खामियाजा वहां के अल्पसंख्यक मुस्लिमों को ही भुगतना पड़ता है। उन्हें शक और बदनामी झेलनी पड़ती है। जो आतंक फैलाते हैं, क्या वे सचमुच मुस्लिम होते हैं? पेरिस और ब्रसेल्स के मुस्लिम आतंकियों को तो नमाज पढ़ना भी नहीं आता। उनमें से कई नमाज के वक्त मस्जिद की छतों से शराब पीते हुए और मादक-द्रव्य फूंकते हुए पकड़े गए हैं। नकली इस्लाम के इन प्रेतों की दवा असली इस्लाम को ही करनी होगी।





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