जीवन यात्रा:रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि

अंचल भारद्वाज | पब्लिक एशिया
Updated: 19 Oct 2021 , 14:01:22 PM
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भारत ऋषि-मुनियों, महापुरुषों व संतों की भूमि है। ऐसे ही एक महापुरुष आदि काव्य रामायण के रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि जी ने भारत भूमि को गौरवान्वित किया है। अश्विन मास की शरद पूर्णिमा को वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है।  असत्य से सत्य के मार्ग पर चलकर महाज्ञानी बनने वाले महर्षि वाल्मीकि का जीवन प्रेरणादायक है जो क्रूरता से दया, दृढ़ता, ज्ञान और सफलता की ओर ले जाने वाला है।

डाकू रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि बनने  की यात्रा को समझने के लिए कुछ रोचक घटनाओं को जानना आवश्यक है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार  वाल्मीकि जी महर्षि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता की संतान हैं। उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था। मनु स्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य मुनि आदि का भाई बताया गया है। प्रचेता का एक नाम वरुण भी बताया जाता है और वरुण ब्रह्मा जी के पुत्र थे। इनके बारे में अनेक भ्रांतियां और विभिन्न मत प्रचलित हैं। कहा जाता है कि बचपन में उन्हें एक भील चुरा कर ले गया था जिस कारण उनका लालन-पालन भील समाज में हुआ। वह बड़े हो कर एक कुख्यात डाकू रत्नाकर बने और लोगों को लूट कर अपना व परिवार का गुजारा चलाते थे। वे लोगों की हत्या भी कर देते थे।

इसी पाप कर्म में लिप्त रत्नाकर जब एक बार जंगल में किसी नए शिकार की खोज में थे तब लूटपाट के इरादे से नारद मुनि को पकड़  लिया। नारदजी नें एक सवाल पूछा, “यह सब पाप कर्म तुम क्यों कर रहे हो?” रत्नाकर नें  जवाब दिया कि यह सब वह अपने स्वजनों के लिए कर रहे है। तब नारद मुनि बोले –“क्या तुम्हारे इस पाप कर्म के फल भुगतने में भी तुम्हारे परिवारजन तुम्हारे हिस्सेदार बनेंगे?” इसपर रत्नाकर के बिना सोचे ‘हां’ बोलने पर नारद जी नें कहा  कि एक बार अपने परिवार वालों से पूछ लो, फिर मैं तुम्हें अपना सारा धन और आभूषण स्वेच्छा से अर्पण कर के यहाँ से चला जाऊंगा।

रत्नाकर नें उसी वक्त अपने परिवार वालों के पास जा कर अपने पाप का भागीदार होने की बात पूछी लेकिन किसी के भी उनके पाप में भागीदार होने की हामी नहीं भरने पर  डाकू रत्नाकर को बहुत दुख  हुआ और आघात भी लगा।  कहा जाता है इसी घटना से उनका हृदय परिवर्तन हो गया, सत्य का ज्ञान हुआ और  उन्होंने पाप कर्म त्याग कर तपस्या का मार्ग अपना लिया और फिर कई वर्षों की कठिन तपस्या के फल स्वरूप उन्हे आत्म ज्ञान मिला और महर्षि पद प्राप्त हुआ।

देवर्षि नारद जी नें उन्हें राम नाम जपने की सलाह दी थी तो रत्नाकर समाधि में बैठ कर राम नाम जप करते करते गलती से मरा-मरा जप करने लगे। सच्चे मन से कई वर्षों तक कठोर तपस्या करते समय उनके शरीर पर  दीमकों ने अपना घर बना लिया था, दीमकों के घर को वाल्मीकि भी कहते हैं, समाधि के बाद दीमक से बाहर निकलने के कारण इनका नाम बाल्मीकि पड़ा। इनके कठोर तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें ज्ञान प्रदान किया और  रामायण जैसा  महान ग्रंथ लिखने की प्रेरणा दी जो हिंदू धर्म की अक्षय निधि है।

इनके मुंह से संस्कृत का पहला श्लोक निकलने से संबंधित यह रोचक कथा प्रसिद्ध है ......कि एक बार देवर्षि नारद  महर्षि  वाल्मीकि के आश्रम में पधारे और उन्हें रामायण का संक्षिप्त परिचय दिया। उनके जाने के बाद तमसा नदी किनारे स्नान के लिए और तपस्या करने हेतु ब्रह्म मुहूर्त में जब वाल्मीकि पहुंचे तब उन्होने देखा कि क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा प्रेम क्रीडा में मग्न था। जिसे देखकर यह भी बहुत प्रसन्न हुए तभी एक शिकारी  (बहेलिए) नें नर पक्षी पर बाण चला कर उसकी हत्या कर दी। मादा पक्षी चीत्कार करते हुए विलाप करने लगी जिस पर ऋषि का मन करुणा से भर गया।  इस हृदय विदारक दृश्य को देखकर क्रोध और दुख से वाल्मीकि के मुख से अनायास ही यह श्लोक निकल पड़ा--
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। 
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥ (रामायण, बालकांड, द्वितीय सर्ग, श्लोक 15)
अर्थ: अरे बहेलिये, तूने प्रेम में मग्न क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक का वध किया है। जा तुझे अनंत काल तक प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होगी।
इस तरह  शोक में  कहे हुए वाक्य के अनायास उच्चारण करने के बाद वे सोच में डूब गए कि आखिर उन्होंने ऐसे वचन क्यों कहे। इस घटना का वर्णन उन्होंने अपने शिष्य भारद्वाज ऋषि के समक्ष किया परंतु यह श्लोक उनके मुख से परम पिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से और सरस्वती की कृपा से ही निकला था फिर उन्हें आभास हुआ कि उनके मुंह से शोक में अचानक निकला यह श्राप छंद रूप में है जो आठ -आठ अक्षरों के चार चरणों, कुल 32 अक्षरों से बना है, इसे गाया जा सकता है और उन्होंने इस छंद को श्लोक नाम दिया परंतु उनका मन बेहद अशांत और व्यथित था। वे इस विषय में अत्यधिक चिंतन करते रहे और इसके बाद सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी ने इन्हें स्वयं दर्शन दिए और देवर्षि नारद द्वारा उन्हें सुनाए गए रामकथा का स्मरण कराया और उन्हें प्रेरित किया कि वे रघुवंशी राम की कथा को काव्य बदध करें और अपने विषाद को त्याग दें। रामायण के बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक ३२ एवं ३३ इन दो श्लोकों में इस प्रेरणा का उल्लेख हैः
रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम। धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः।।
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम्। रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः।।

योग और तपस्या के बल से और ब्रह्मा जी की कृपा से वाल्मीकि जी  त्रिकालदर्शी ऋषि थे । ब्रह्मा जी ने उन्हें आश्वासन भी दिया कि अंतर्दृष्टि के द्वारा उन्हें श्रीराम के जीवन की घटनाओं का ज्ञान हो जाएगा। ब्रह्मा जी ने इस श्लोक में करुण रस की अधिकता होने का यह कारण भी बताया कि श्री राम के जीवन का सबसे करुण भाग तो आरंभ होने वाला है  और इस तरह महर्षि वाल्मीकि का शाप रामायण का पहला श्लोक बन गया। इन्होंने श्री राम चरित्र का उत्तम एवं बृहद विवरण कर प्रसिद्ध आदि काव्य रामायण की अनुष्टुप छंदो में रचना की और 'आदि कवि वाल्मीकि' के नाम से अमर हो गए। देवर्षि नारद द्वारा कही बातें, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की प्रेरणा आदि का उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं अपने ग्रंथ में आरंभ में किया है। वाल्मीकि ने रामायण की रचना संस्कृत में की थी जिसमें 7 अध्याय (कांड), 500 सर्ग और 24000 श्लोक हैं। यह वैदिक काल का प्रथम महाकाव्य  माना गया व इन्होंने उस के माध्यम से संस्कृति, मर्यादा, एक आदर्श जीवन पद्धति का आदर्श प्रस्तुत किया। रामायण के नायक श्री राम का चरित्र सदा ही लोकमानस का आदर्श चरित्र है, हम आज भी रामराज्य की कल्पना करते हैं। 

भारतीय साहित्य में रामायण से बढ़कर श्रेष्ठ ग्रंथ पृथ्वी पर नहीं है, अनेक भाषाओं में रामायण के अनुवाद होते हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद राम के ऊपर जितने भी ग्रंथ लिखे गए उनका मूल बाल्मीकि रामायण ही है। वाल्मीकि ने विश्व के लिए युगों युगों तक मानव संस्कृति की स्थापना की है। श्री राम आदर्श पुत्र थे जिन्होंने अपने  पिता के वचन का पालन करने के लिए 14 वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया था। पति के रूप में उन्होंने सदा एक पत्नी व्रत का पालन किया, वे धर्मात्मा, प्रजा के प्रिय, शरणागत की रक्षा करने वाले, युद्ध एवं नीति कुशल, न्याय प्रिय, सत्यवादी और मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। श्रीराम यानी राष्ट्रीयता, धर्म, संस्कृति और पराक्रम का दूसरा नाम। उन्होंने गृहस्थ धर्म और राजधर्म का आदर्श प्रस्तुत किया जो विलक्षण है। श्रीराम ने आसुरी शक्तियों का नाश कर धर्म की स्थापना की थी आज भी विश्व में आतंकी शक्तियां सिर उठा रही हैं ऐसे में युग बीत जाने के बाद भी श्रीराम की कार्यप्रणाली और  रामायण आज भी   प्रासंगिक है।  रामायण में प्रत्येक पात्र अपने धर्म का पालन करता है, ना केवल आदर्श राम और पतिव्रता सीता का ही चरित्र बल्कि कौशल्या और सुमित्रा जैसी माँ, भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न जैसे भाई, उर्मिला जैसी पत्नी हनुमान जैसा सेवक और सुग्रीव, निषाद राज, जटायु आदि सभी पात्रों का चरित्र भी सशक्त और प्रेरक है। रामायण भाइयों के प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है, भरत का त्याग अद्भुत है।

इसके अलावा इनके जीवन में दूसरी महत्वपूर्ण घटना घटी, रामायण में जब सीता माता को लोक निंदा के डर से राम ने त्याग दिया था तो उस वनवास के दौरान माँ सीता वाल्मीकि के आश्रम  में उनके आश्रय  में रही थीं और जहां उन्होंने लव कुश को जन्म दिया। ये लव कुश के  संरक्षक -गुरु भी रहे व लव कुश को अस्त्र शस्त्र कला सिखाने के साथ-साथ उनके (लव कुश) जन्म तक की रामायण कंठस्थ भी करवाई। जब श्री राम ने अश्वमेघ यज्ञ शुरू किया था तो यज्ञ का घोड़ा वाल्मीकि के आश्रम स्थल से गुजरा था जिसे लव कुश ने पकड़ कर अपनी वीरता का परिचय दिया था। अंत में जब माँ सीता महर्षि बाल्मिकी के साथ राम के दरबार में गई थीं और धरती मां की गोद में समा गई थी उससे पहले वाल्मीकि जी ने उनकी पवित्रता की घोषणा की थी और कहा था कि उन्होंने हजारों वर्ष तक तपस्या की है और यदि सीता में कोई दोष हो तो उन्हें उनकी तपस्या का फल ना मिले। ऐसे वैदिक काल के महान ऋषि वाल्मीकि जी की जीवन यात्रा हमें दृढ़ इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की ओर अग्रसर होना सिखाती है। 

रामायण बुराई पर अच्छाई की जीत है, वाल्मीकि रामायण से पितृ भक्ति, भ्रात प्रेम, पतिव्रत धर्म, कर्तव्य परायणता, प्रतिज्ञा पूर्ति, मर्यादित और चरित्रवान समाज निर्माण जैसी अनेक  शिक्षाएं प्राप्त होती हैं। गरुण पुराण, अग्नि पुराण, हरिवंश पुराण, स्कंद पुराण और महाकवि कालिदास के रघुवंश आदि अनेक प्राचीन ग्रंथों में भी महर्षि वाल्मीकि एवं उनके पवित्र ग्रंथ  रामायण का उल्लेख मिलता है। जब तक इस पृथ्वी पर पहाड़ और नदियां रहेंगे तब तक रामायण कथा अमर रहेगी। रामायण में कहा गया है--
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः । सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥ 
भावार्थ : सत्य ही संसार में ईश्वर है; धर्म भी सत्य के ही आश्रित है; सत्य ही समस्त भव - विभव का मूल है; सत्य से बढ़कर और कुछ नहीं है।






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