बसपा पर मंडराता अस्तित्व बचाने का संकट

नरेंद्र तिवारी 'पत्रकार' | पब्लिक एशिया
Updated: 24 Dec 2021 , 22:43:36 PM
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 देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव का शोर बढ़ता जा रहा है। यूपी सहित पांच राज्यों के चुनाव की अब कभी भी तारीखों का एलान हो सकता है। इन पांच राज्यों में देश के सबसे बड़े प्रान्त यूपी का चुनाव सभी सियासी दलों के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इन दलों में बहुजन समाज पार्टी यूपी में वह दल है,जिसने तीन बार सहयोगियों की मदद से जबकि एक बार खुद के बल पर यूपी की सत्ता पर अपना कब्जा जमाया है। बसपा ने मायावती के नैतृत्व में यूपी के मुख्यमंत्री की कुर्सी को चार बार शोभायमान किया है।

सामाजिक समानता, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता ओर मानव अधिकारों की विचारधारा से इस दल ने देश के बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में अपनी प्रभावी राजनैतिक हैसियत बना रखी थी। क्या 2022 का चुनाव मायावती ओर उनकी पार्टी बहुजन समाज पार्टी के कमजोर प्रदर्शन का संकेत दे रहा है ? चुनाव से पहले बसपा में मची हलचल तो कुछ इसी ओर इशारा करती दिखाई दे रहीं है। पार्टी के विधायक एवं नेता साथ छोड़कर अन्य दलों की शरण मे जा रहें है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के 19 एमएलए विजयी हुए थै। साल 2022 का चुनाव आतें-आतें यह संख्या मात्र 4 रह गयी है। अपनी दलित हितैषी ओर सामाजिक न्याय की विचारधारा पर चलकर  मायावती ने यूपी में दलित अल्पसंख्यक एवं पिछड़ों का एक मजबूत गठजोड़ तैयार किया था। इस गठजोड़ को भरपूर समर्थन भी मिलता रहा। वर्ष 2007 बसपा का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। इस वर्ष यूपी की सिसायत में बसपा ने पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी। बसपा 403 सीटों पर विधानसभा का चुनाव लड़ी ओर 206 सीटों पर विजय श्री हासिल करते हुए पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। वही लोकसभा में भी बेहतर प्रदर्शन किया था। उसके बाद मायावती के नैतृत्व में बसपा का प्रदर्शन लगातार कमजोर हुआ है। इस दल ने 2012 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ा ओर 80 पर ही विजय प्राप्त की थी। यूपी की जनता के मन में बसपा के सामाजिक न्याय का सिद्धांत कमजोर पड़ता शाबित हुआ। यह 2017 के विधानसभा में ओर भी कमजोर हो गया 403 में से महज 19 सीटों पर समेट गया। अब जबकि 2022 के चुनाव की आहट सुनाई दे रहीं है।

बसपा में टूटन जारी है। जनता के द्वारा हाथी निशान पर चुने गए नेता ही बसपा से दूर भागते देखे जा रहें हैं। 19 में से महज 4 विधायकों का रह जाना बसपा के प्रति कम होते जनाकर्षण का प्रतीक है। जनता के बीच बसपा की साख के लगातार गिरने के पीछे क्या कारण है। साख गिरने की यह बात एबीपी सी वोटर का सर्वे कह रहा है जिसके मुताबिक मायावती को मुख्यमंत्री के रूप में चाहने वाले लोगो की संख्या महज 14 फीसदी रह गयी और बसपा को मिलने वाली सीटों की संख्या भी 12 से 24 तक बताई जा रहीं है। मतलब साफ है यूपी में दलित,अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग मायावती के सामाजिक समानता,न्याय पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। क्या बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीशचन्द्र मिश्रा द्वारा वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग नामक प्रयुक्त सफलता के सूत्र ने अपना असर दिखाना बन्द कर दिया है। दरअसल बसपा के संस्थापक स्वर्गीय काशीराम द्वारा दलितों शोषितों को एकत्रित करने के उद्देश्य से 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी। अपने निर्माण से ही बसपा यूपी में अपना प्रभाव दिखाती रहीं है। डाक्टर भीमराव अम्बेडकर के बाद स्वर्गीय श्री काशीराम ही दलित,अल्पसंख्यक ओर पिछड़ा वर्ग की आवाज बन पाए। अपने इस मिशन में काशीराम ने देश के दलित समाज के सम्पन्न ओर आम तबके को जो शहरी क्षेत्रों, छोटे शहरों में रहता था और सरकारी सेवा करता था।

इन्हें जोड़ा ओर एकता के सूत्र में पिरोकर दलितों,शोषितों अल्पसंख्यकों से रिश्ता बनाकर बसपा नामक राजनैतिक दल की स्थापना की थी। स्वर्गीय काशीराम जी के इस मिशन नें दलित समाज के पढ़े-लिखे वर्ग में जातीय चेतना के बीज अंकुरित कर दिए थै। इस पढ़े लिखे वर्ग के पास प्रत्येक वर्ष या कुछ महत्वपूर्ण समय पर बसपा का साहित्य पहुचता था। यह साहित्य ओर दलित चेतना का विचार इस वर्ग को अपनी जड़ों से जोड़कर रखता था। यूपी में 2007 की सत्ता के बाद से बसपा के ग्राफ में आने वाली गिरावट सतीशचन्द्र मिश्रा के सोश्यल इंजीनियरिंग का प्रयोग ओर मायावती का भाजपा के प्रति नरम रुख बसपा में मची भगदड़ का सबसे प्रमुख कारण माना जा सकता है। दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ हुई ज्यादतियों पर चुप्पी मायावती को महंगी पढ़ रही है। खासकर अल्पसंख्यक नेता इसीलिए ही बसपा छोड़ रहें है। यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती का अपने करीबियों से दूरियां बना लेना, संवाद की कमी  और संकट में साथ नहीं देना।

यह ऐसे महत्वपूर्ण कारण है जो जातिवादी राजनीति के सबसे बड़े रणस्थल में बसपा को कमजोर करतें दिखाई दे रहें है। धर्म और जाति की राजनीति में अक्सर यह देखा जाता है की जब तक आप सामने वाली जाति या धर्म के प्रति तीखा ओर सख्त रुख इख्तियार नहीं करते। आपके समर्थक जाति एवं धर्म के लोगो का जुड़ाव आपसे कम होता जाता है। इस संदर्भ में भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का उदाहरण एक दम फिट बैठता है। रामजन्म भूमि आंदोलन के नेता और हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार आडवानी जी का पाकिस्तान जाकर जिन्ना की मजार पर मत्था टेकना ओर उनकी प्रशंसा करना उनके समर्थक वर्ग को नाराज कर गया।

आडवानी फिर अपनी पार्टी में वह सम्मान और समर्थन नहीं पा सके। मायावती नें भी दलित और शोषितों की लड़ाई को लड़ने के लिए सोश्यल इंजीनियरिंग का सहारा लिया जिसने एक बार बसपा को सफलता तो दिला दी,किन्तु दलितों में बसपा की जड़े कमजोर कर दी। इन जड़ो को पुनः सींचना होगा जिसमे अब बहुत समय लगेगा। इस दौर में बसपा बेहद संकट में दिखाई दे रही है। अनुमान के विपरीत वर्ष 2022 में यदि बसपा सफलता के झंडे गाड़ती है या फिर सम्मानजनक सीटों पर विजय श्री हासिल करती है तो यह  मायावती के चमत्कारिक व्यक्तित्व का असर माना जा सकता है।

बहरहाल ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है। वर्तमान में बसपा अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहीं है। 'तिलक तराजू ओर तलवार इनको मारों जूतें चार' के कट्टर वादी नारे को परिवर्तित कर सत्ता प्राप्ति के लिए 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है।' का श्लोगन बसपा को सत्ता तो दिला गया। पर जमीन खसका गया। खिसकी हुई जमीन बसपा को पुनः प्राप्ति के लिए अपनी मौलिकता में पुनः लौटना होगा। दलित शोषित ओर अल्पसंख्यकों की सड़क पर लड़ाई लड़ना होगी। बसपा को नवयुवकों ओर उर्जावान नैतृत्व को आगे लाना होगा। भारत मे राजनैतिक विचारों का अपना असर है। बसपा का वैचारिक प्रभाव कमजोर हो रहा हैं। फिलहाल बसपा पर अपने अस्तित्व को बचाने का संकट मंडराता दिखाई दे रहा हैं।




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