भारत,अमेरिकी सामरिक,राजनीतिक और व्यापारिक संबंधों के क्या दूरगामी प्रतिफल होंगे

संजीव ठाकुर ,चिंतक, लेखक, | पब्लिक एशिया
Updated: 07 Nov 2021 , 20:04:16 PM
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आजादी के बाद से भारत, रूस के साथ अच्छी मित्रता का आदी हो गया हैl भारत को पाकिस्तान के और चीन के विरुद्ध दोनों युद्धों में रूस की सेना ने अस्त्र, शस्त्र तथा सामरिक महत्व के मामलों में बहुत मदद की थी और उसका परिणाम यह हुआ था कि भारत ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में रूस की मदद से बढे मनोबल से जीत दर्ज की थी। पश्चिमी पाकिस्तान को मूल पाकिस्तान देश से अलग कर बांग्लादेश नामक एक स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण किया थाl


इस तरह रूस हमारा परंपरागत मित्र रहा हैl पर पिछले एक दशक से अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के बाद बिल क्लिंटन तथा डोनाल्ड ट्रंप और अब जोसेफ बाइडेन के कार्यकाल तक भारत की नज़दीकियां अमेरिकी प्रशासन से प्रगाढ़ हो गई है। भारत के अमेरिका के साथ व्यापारिक, सामरिक तथा अन्य महत्त्व की चीजों को लेकर कई समझौते हुए हैं, पर जैसा कि अमेरिका का चरित्र है वह भारत के साथ औपचारिक रूप से मित्रता जरूर कर ले पर युद्ध के समय भी यदि साथ दें, तो ही उसकी मित्रता महत्वपूर्ण है, अन्यथा भारत का परंपरागत मित्र रूस भी हमसे दूर ना हो जाए, यह आशंका सदैव बनी रहती है।


भारत अमेरिकी संबंधों के सामरिक, राजनैतिक एवं व्यापारिक दूरगामी परिणाम क्या होंगे यह तो भविष्य ही बताएगा पर रूस की बहुमूल्य लंबी मित्रता के मूल्य पर अमेरिका से मित्रता करना भारत के लिए नुकसान दे ना हो जाए। इस बात पर भी बहुत गहराई से सोचने की आवश्यकता है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विगत दिनों अमेरिकी यात्रा तथा अमेरिका से निकटता को दृष्टिगत रखते हुए,इसे भारत की कूटनीतिक सफलता कहें या अमेरिकी विदेश नीति की नई चाल जिसमें उसने भारत को अपने नजदीक लाकर पाकिस्तान पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाला है। अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि एशिया में अमेरिका का सबसे नजदीकी दोस्त आने वाले कल के लिए भारत ही होगा और अमेरिका को धोखे में रख पिछले दो दशकों से तालिबानी आतंकवादियों को तन, मन, धन से अमेरिका तथा अफगानिस्तान के खिलाफ मदद के कारण अमेरिका के सभी सांसद, सीनेटर एवं पदाधिकारी बेहद नाराज चल रहे हैं। इन परिस्थितियों में अमेरिका का भारत के साथ जुड़ाव तथा गहरे संबंध पाकिस्तान को नागवार गुजर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में चुनाव के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो वायडेंन ने पाकिस्तान को जरा भी तवज्जो नहीं दी थी, कई देशों के राष्ट्र प्रमुखों से बात करने के बावजूद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान से बात करना भी मुनासिब नहीं समझा। पाकिस्तान इस बात को अच्छे से समझता है कि अमेरिका उससे पूरी तरह खफा है। अब चीन ने भी उसको जबरदस्त झटका दिया है, अपने चीनी इंजीनियरों की हत्या के बदले 38 लाख डॉलर का हर्जाना मांगा है।


अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी पाकिस्तान को नया कर्जा देने से साफ इनकार कर दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अधिकारियों का मानना है कि पाकिस्तान को अब यदि कर्ज दिया जाएगा तो उसके भुगतान की कोई गारंटी नहीं होगी,वह पैसा डूब ही जाएगा क्योंकि पाकिस्तान पूरी तरह से कंगाल हो चुका है। ऐसे में चारों तरफ से संकट में घिरे हुए पाकिस्तान ने अमेरिका के सामने घुटने टेक कर उन्हें अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ अपने एयरवेज को इस्तेमाल करने की अनुमति देने की पेशकश की है। न्यूज़ एजेंसी के अनुसार अमेरिकी प्रशासन ने कहा है कि अमेरिका अफगानिस्तान में सैन्य और खुफिया अभियानों के संचालन के लिए हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल के लिए एक सुरक्षित एयरबेस खोज रहा है और इसी कार्यक्रम में पाकिस्तान ने हवाई क्षेत्र के इस्तेमाल के लिए अपना एयरबेस देने को प्रस्तावित किया है। जिसका अभी औपचारिक समझौता होना बाकी है। सीएनएन ने बताया कि पाकिस्तान ने आतंक विरोधी कोशिशों और भारत के साथ संबंधों के बदले एक समझौता करना चाहता है पर समझौते को अंतिम रूप नहीं दिया गया है। अमेरिकी प्रशासन और वाइट हाउस अभी भी यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहा है कि वह अफगानिस्तान में ना रहते हुए भी इस्लामिक स्टेट और अन्य आतंकी समूहों के खिलाफ कार्रवाई कर सकता है।


मौजूदा परिस्थितियों में अमेरिकी सेना अफगानिस्तान तक पहुंचने के लिए पाकिस्तान हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करती है इसको लेकर अभी तक कोई औपचारिक समझौता नहीं हो सका है। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि पाकिस्तान अपना हवाई क्षेत्र देने के बदले अमेरिका से क्या-क्या लेना चाहता है। पाकिस्तान अपना एयरबेस तथा हवाई क्षेत्र के उपयोग की अनुमति के बदले में अमेरिका से पाकिस्तान के अंदरूनी हालात सुधारने के लिए डॉलर में कर्जा लेना चाहेगा पर दूसरी तरफ अफगानिस्तान में सैन्य उपस्थिति बनाने के लिए अमेरिका पाकिस्तान के साथ ताजिकिस्तान,ताजीकिस्तान आदि देशों को विकल्प मान रहा है। लेकिन ये देश रूस को नाराज नहीं करना चाहते हैं। वर्तमान समय में अमेरिका मिडिल ईस्ट के देशों से उड़ान भरने के लिए मजबूर है। अब अमेरिकी प्रशासन तथा राष्ट्रपति इन सब की एक बहुत महत्वपूर्ण तथा प्रभावशाली विकल्प की तलाश में है। अमेरिकी राष्ट्रपति प्रशासन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अफगानिस्तान में आतंक विरोधी गतिविधियों की अपनी क्षमता तथा कार्रवाई को निर्बाध गति से बनाए रखना चाहते हैं, यद्यपि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान की जमीन पर नहीं है लेकिन अमेरिका अफगानिस्तान में काम करने की अपनी क्षमता एवं इच्छा को बरकरार रखना चाहता है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका अरबो डालर खर्च करने के बाद भी अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों के डर से परास्त होकर लौटा है।


अमेरिका ने अफगानिस्तान में लगभग दो दशक अपनी सेना को बनाए रखा, और वहां के विकास के लिए रोड, अस्पताल, बांध, भवन बनाने के लिए तथा रक्षा खर्च के लिए अरबों डॉलर का निवेश किया था। तालिबानियों के हाथों अपनी पराजय को अमेरिका इतनी आसानी से भुला नहीं सकता है। यह अलग मुद्दा है के तालिबानी और अफगानिस्तान के मामले में पाकिस्तान ने अमेरिका को पिछले 20 वर्षों से अंधेरे में रखकर जबरदस्त धोखा दिया और अफगानिस्तान में अमेरिकी पराजय का मुख्य कारण पाकिस्तान की रहा है। अमेरिकी सैनिकों तथा सेना की हर एक पल की जानकारी पाकिस्तान तालिबानी आतंकवादियों को मुहैया कराता रहा है और यही वजह है कि अमेरिकी सेना को अफगानिस्तान अचानक छोड़ना पड़ा।


अफगानिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों के हाथों पराजय को अमेरिका कई सदियों तक नहीं भूलेगा और हर हाल में आतंकवाद के खिलाफ हो अपनी कार्रवाई को निरंतर जारी रख एशिया में अपनी ताकत बढ़ाने की फिराक में रहेगा। और भारत से अपने मजबूत संबंध आगे बढ़ाना चाहेगा। लेकिन फिर भी जैसा कि इतिहास बताता है अमेरिका विश्वास के योग्य मित्र नहीं है। भारत को बड़ी ही सतर्कता के साथ अमेरिका तथा अन्य देशों से अपने संबंधों को बढ़ाना होगा।





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