महिला दिवस: भारत में रूढ़िवादिता को तोड़ती लड़कियां

public asia | पब्लिक एशिया ब्यूरो
Updated: 08 Mar 2023 , 22:41:17 PM
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भारत में रूढ़िवादिता को पीछे छोड़ते हुए लड़कियां राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना झंडा फहरा रही है। कुछ ऐसी ही तर्ज पर असम के डिब्रूगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव लड़की मैना मुंडा मुक्केबाजी की दुनिया में अपना लोहा मनवाने के लिए निरंतर अग्रसर है।
मैना ने गरीबी में रहने के बावजूद राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मुक्केबाजी में पदक जीते हैं और वह भारत के लिए ओलंपिक पदक जीतने का सपना देखती है, लेकिन उनकी राह आसान नहीं रही है। वह मां चित्रलेखा मुंडा के त्याग की बदौलत ही अपने सपने साकार करने में सक्षम रही हैं। मैना ने बताया कि उसके प्रशिक्षण की सामग्रियों को खरीदने के लिए उसको मां को अपनी गायों को बेचना पड़ा। उसे विश्वास है कि वह अपने और मां के सपने को साकार करेंगी।

चित्रलेखा ने कहा, “मैंने मैना को कभी भी कमजोर पड़ने नहीं दिया। हमेशा पूरी लगन से लक्ष्य हासिल करने की सलाह दी। जब वह अपना लक्ष्य हासिल कर लेगी तभी लड़कियां और यहां तक कि लड़के भी आपका अनुसरण करेंगे।”
उन्होंने कहा कि मैना की कहानी भारत में लड़कियों की बढ़ती संख्या का सिर्फ एक उदाहरण है जो विपरीत परिस्थितियों को पीछे छोड़कर खेल में अपने सपनों को साकार कर रही हैं।

यूनिसेफ इंडिया के यू-ट्यूब चैनल ने पिछले साल बाल दिवस के अवसर पर मैना की धैर्य और लिंग के बारे में चुनौतीपूर्ण सामाजिक मानदंडों की कहानी दिखाई थी। वह वीडियो में बताती है कि कैसे उसने लोगों की आलोचना सही और कैसे उसने सामाजिक ताने-बाने का जवाब देने से इनकार कर उस पर काबू पाया।

आज भारत के बड़े शहरों और दूर-दराज के क्षेत्रों से महिलाएं क्रिकेट से लेकर फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, कुश्ती, कबड्डी के अलावा और भी बहुत कुछ क्षेत्रों में राज्य, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलों में भाग ले रही हैं। ये लड़कियां परंपराओं, रीति-रिवाजों और उससे उत्पन्न बाधाओं को पीछे छोड़कर अपना मुकाम हासिल कर रही हैं और कुछ महिलाएं तो पहले ही खेल जगत में सेलिब्रिटी का दर्जा हासिल कर चुकी हैं। इसके अलावा कई महिलाएं खेल जगत में अपनी पहचान बनाने का प्रयास कर रही हैं और उनकी सफलता अक्सर उनके माता-पिता में विशेषकर उनकी माताओं के समर्थन पर निर्भर करती है।

इसी तरह पायल प्रजापति की कहानी भी है, जो राजस्थान के अजमेर जिले के एक गाँव की रहने वाली हैं, जहाँ अक्सर लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है। पायल इन सबसे अलग है। वह गांव की पहली लड़की है जो फुटबॉल खेल रही है और और पायन ने सावित्री पवार और निशा रावत जैसे अन्य लोगों को उनके नक्शेकदम पर चलने के लिए प्रेरित किया है। शादी करने के सामाजिक दबाव के बावजूद पायल और उसके दोस्त राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं।
पायल की मां संतोष प्रजापति ने उसके सपनों को साकार करने में पूरा साथ दिया। संतोष ने गर्व से कहा, “पायल जहां भी जाना चाहती हैं उसे जाने की पूरी इजाजत है चाहे वह मणिपुर, जयपुर, लखनऊ, दिल्ली हो। मैं चाहती हूं कि वह अपना मुकाम हासिल करने के लिए देश के हर छोर की यात्रा करें।”

यूनिसेफ के समर्थन से स्थानीय लड़कियों की फुटबॉल पहल लैंगिक समानता पर ध्यान केंद्रित कर रही है और किशोर लड़कियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए विश्वास पैदा कर रही है। यूनिसेफ एक बच्चे के पूरे जीवन चक्र के माध्यम से और भारत में बाल विवाह के नकारात्मक सामाजिक मानदंडों के निवारण के माध्यम से उसे रोकने के लिए निरंतर काम करता है।
इसी तरह गौरांशी शर्मा भारत में रूढ़ियों को तोड़ने वाली एक और युवा एथलीट हैं। मूक बधिर ओलंपियाड 2021 में बैडमिंटन में स्वर्ण पदक विजेता गौरांशी ने असाधारण दृढ़ संकल्प का परिचय दिया है। गौरांशी को अपना मुकाम हासिल करने के लिए अपने माता-पिता गौरव शर्मा और प्रीति शर्मा से पूरा सहयोग मिला है। गौरांशी को हालांकि बचपन से ही सुनने और बोलने की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन उसके माता-पिता ने इन सभी बाधाओं को उसके सपनों के आड़े नहीं आने दिया। अपने पिता के प्रोत्साहन से गौरांशी ने बैडमिंटन में आने से पहले विभिन्न खेलों में हाथ आजमाया और कई पुरस्कार जीते हैं।

दृढ़ संकल्प और अभिभावकों के समर्थन की ये कहानियां देश में लड़कियों की अपना मुकाम हासिल करने का प्रमाण हैं जो विभिन्न बाधाओं को धत्ता देते हुए खेलों में अपनी सफलता के झंड़े गाढ़ रही हैं। ये सभी लड़कियां अपना लक्ष्य हासिल कर आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्ग प्रशस्त कर रही हैं और दूसरों को अपने सपनों को साकार करने के लिए प्रेरित कर रही हैं, चाहे कोई भी बाधा क्यों न हो उन्हें दृढ निश्चय के साथ अपना मुकाम हासिल करने से कोई नहीं रोक सकेगा।





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