राजनीति में क्यों होता है,विश्वासघात

नरेंद्र तिवारी पत्रकार | पब्लिक एशिया
Updated: 24 Dec 2021 , 20:24:52 PM
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 देश के नम्बर दो नेता ने महाराष्ट्र की धरती पर जब अपने पुराने सहयोगी पर विश्वासघात का आरोप लगाया तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई,शरीर थरथराने लगा,मैं लम्बी गहरी सोच में डूब गया और यह सोचता रहा की राजनीति में विश्वास नामक शब्द भी होता है। जिसके साथ घात भी किया जा सकता है ? दो नम्बरी नेता जिन्होंने अनेक राज्यों में कम विधानसभा सदस्य होने के बावजूद भी अपनी सरकार गठित करने का कीर्तिमान रचा है। उनका समर्थक वर्ग यह कहने लगा था की उन्हें यदि बाहरी राष्ट्रों में भेजा जाए तो वहां भी वह  सरकार बनाने बिगाड़ने का खेल कर सकतें है। ऐसे हमारे कीर्तिमानधारी नेता ने अपने पुराने सहयोगी पर यह आरोप लगाया की उन्होंने सत्ता के लिए बेमेल समझौता कर लिया है। अपनी विचारधारा से अलग रास्ता इख्तियार किया जिनसे दो पीढ़ियों से लड़ते आ रहें थै।

उनसे मिलकर सरकार बना ली। ऐसा कर उन्होंने विश्वासघात किया है। यह विश्वासघात शब्द मुझे बार-बार चुभ रहा था। देश के नम्बर दो नेता द्वारा विश्वासघाती होने का आरोप बार-बार दोहरातें हुए कहा कि वर्तमान महाराष्ट्र प्रान्त प्रधान के साथ 2019 में चुनावी बैठक हुई तब पंत प्रधान  के विशालकाय आकार के फ़ोटो के सामने आपकी एक चौथाई साइज की छोटी सी फ़ोटो बैनर पर लगी थी। फ़ोटो की साइज को हैसियत का पैमाना मानते हुए उन्होंने तंज भी कसा ओर कहा कि पंत प्रधान के नाम से आपने विजय हासिल की फिर अन्य पार्टियों के साथ  सरकार बना ली। आपकी वर्तमान सरकार तीन पहिए की आटो रिक्शा की भांति है।

जिसके तीनो पहिए पंचर है,जो अलग-अलग दिशा में जा रहें है ओर सिर्फ धुंआ फेंककर प्रदूषण फैला रहें है। राजनीति में विश्वासघात जब अपने साथ होता है तो कितनी तखलिफ़ होती है। इसका एहसास भी मुझे देश के नम्बर दो नेता के पार्टी कार्यकर्ताओं को दिए गए भाषण को सुनकर हुआ। मैनें उक्त भाषण बार-बार सुना और दो नम्बरी नेता के दर्द को महसूस किया। हर बार सुनकर मेरे जहन में एक नए राज्य का ख्याल आ रहा था, एक-एक कर वह सभी राज्य मेरे जहन में घूमने लगे जहा सरकार बनाने की कला का बेहतरीन प्रदर्शन हुआ था। राजनीति की सभी कलाओं में निपुण देश के महान दो नम्बरी नेता ने अपनी कलाओं से अल्पमत को बहुमत साबित करने का चमत्कारिक खेल दिखाया। इस खेल से उनके समर्थक वर्ग में भारी प्रसन्नता व्याप्त हो गयी। देश में एक नवीन राजनैतिक शैली का उदय हो रहा था।

जिसमें नैतिक,अनैतिक,विश्वास कुछ नही था। सरकार बनाना ही सबसे बड़ा ओर प्रमुख लक्ष्य माना जाने लगा। सरकार किस प्रकार बनेगी किन साधनों का प्रयोग होगा यह सब बातें गौण साबित हो गयी थी। एक नवीन प्रकार की नैतिकता का उदय होने लगा था। मेरे ख्याल में सबसे पहले जम्मू काश्मीर आया जंहा घूर विरोधी विचारों का कुर्सी के लिए मिलन हुआ। इसके बाद ह्रदय प्रदेश याने मध्यप्रदेश का सारा घटनाक्रम नजरों के सामने घूमने लगा। जहां  एक दल की 15 वर्षीय सरकार को बदलकर जनता द्वारा नवीन जनादेश दिया गया था। इस प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ था। जब जनता के द्वारा एक प्रतीक चिन्ह पर चुने हुए 22 विधायकों को एक रियासत के महाराज की महत्वाकांक्षाओ की पूर्ति के लिए अपनी ही पार्टी की सरकार से समर्थन वापिस लेने का जनहितैषी निर्णय लेने पर बाध्य होना पड़ा।

बैंगलौर के रिसोर्ट में ठहरें यह विधायक राजनैतिक पवित्रता की नवीन इबारत लिख रहे थे। फिर मध्यप्रदेश में एक नवीन सरकार का गठन हुआ जो जनता ने नहीं राजनैतिक प्रबंधन से गठित सरकार थी। ख्याल तो ख्याल है वह गोवा,मणिपुर, कर्नाटक आदि राज्यों की सरकारों के गठन में प्रयुक्त राजनैतिक प्रबंधन के ख्यालों में डूबता चले गया। कम सख्या बल होने के बाद भी सरकारें बनाई गयी। और दलीय निष्ठाओं ओर विश्वास पर धनबल,बाहुबल ओर सत्ताबल हावी होता दिखाई दें रहा था। क्या मप्र,मणिपुर,गोवा, जम्मूकश्मीर ओर कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए प्रयुक्त प्रबंधनों,साधनों को जनादेश के साथ विश्वासघात की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए ? दरअसल इंसानी सोच में स्वयं की पीड़ाओं को व्यक्त किये जाने की फितरत शामिल है। वह किसी ओर की पीड़ाओं को न देख पाता है न महसूस कर पाता है। तो बात देश के नम्बर दो नेता के द्वारा महाराष्ट्र के पुणे में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में महाराष्ट्र के प्रांत प्रधान पर विश्वासघाती होने का जो आरोप लगाया उस आरोप को सुनकर दिमाग सन्न रह गया। सोच रहा हूँ हमारी राजनैतिक व्यवस्था में  पवित्रता और नैतिकता ओर पारदर्शिता की बातें तो बहुत होती है।

किन्तु इन आदर्शवादी शब्दों ओर आचरणों इस्तेमाल कोई दल नहीं करता है। राजनैतिक दलों का नकलीपन स्पष्ट नजर आता है। क्या राजनीति में पवित्रता और नैतिकता का दौर कभी आएगा जब नेताओं और राजनैतिक दलों के दावें,वादे,घोषणाएं चरितार्थ हो सकेगी। क्या राजनीति में पवित्रता का कोई स्थान नहीं है। क्या राजनीति को झूठ,फरेब ओर धोखाधड़ी से मुक्त नहीं होना चाहिए। महाराष्ट्र में विचारों से समझौता कर सरकार बना ली गयी। यह निश्चित रूप से जनादेश का अपमान है। ऐसा नहीं होना चाहिए। राजनीति में ईमानदारी,पवित्रता का होना जरूरी है पर मलाल यह है कि इनके दर्शन नहीं होतें। सत्ता प्राप्ति किसी भी दल का लक्ष्य हो सकता है किंतु सत्ता प्राप्ति के लिए पवित्र साधनों का प्रयोग भी होना चाहिए।




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