शाहीनबाग पर सुप्रीमकोर्ट का कल्याणकारी नजरिया

प्रेम शर्मा | पब्लिक एशिया
Updated: 08 Oct 2020 , 14:04:39 PM
  • Share With



शहीन बाग प्रदर्शन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की है उसमें वास्तव में जनकल्याण छिपा है। सुप्रीमकोर्ट ने अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए सरकार और प्रशासन को ही जिम्मेदार नही ठहराया बल्कि यह भी इशरा किया है कि चंद लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए फण्डिग लेकर जनता की भावनाओं को भड़काकर इस तरह का असामाजिक घिनौना खेल खेलते है। इससे न केवल देश की सम्प्रभुता को खतरा उत्पन्न होता है बल्कि देश के विकास में रूकावट आने के साथ वैमन्यस्ता बढ़ती है। यही  वैमन्यस्ता आगे हिंसक रूप अख्तिायार कर लेती है।


शाहीन बाग में करीब सौ दिन चले धरना-प्रदर्शन पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भले कुछ देर से आया हो, लेकिन स्वागतयोग्य है। बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने साफ सुना दिया कि प्रदर्शनकारी अनिश्चितकाल के लिए किसी सार्वजनिक सड़क या जगह पर कब्जा नहीं कर सकते। कोई भी समूह या व्यक्ति प्रदर्शन के नाम पर सार्वजनिक जगह को बाधित नहीं कर सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रदर्शन किसी ऐसी जगह पर होना चाहिए, जहां भीड़भाड़ न हो।


यह बात छिपी हुई नहीं है कि शाहीन बाग में हुए प्रदर्शन से जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई संभव नहीं है। उससे जो व्यापक आर्थिक, सामाजिक क्षति पहुंची है, उसका आकलन और भी मुश्किल है। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), एनआरसी और एनपीआर के विरोध में जब शाहीन बाग में प्रदर्शन हो रहा था, तब देश में माहौल काफी गरम था। इसके पक्ष व विपक्ष में समाज बंटा हुआ था। प्रशासन जब मजबूर हो गया था, प्रदर्शनकारियों को हटाने की कोशिशें जब नाकाम हो गई थीं, तब सुप्रीम कोर्ट ने समाधान निकालने के लिए मध्यस्थों को भेजा था। कुछ दौर की बातचीत के बावजूद प्रदर्शनकारी मध्यस्थों की बात मानने को तैयार नहीं हुए।


तब सुप्रीम कोर्ट की ओर से कोशिश हुई थी कि धरना कहीं और स्थानांतरित हो जाए और शाहीन बाग की बाधित सड़क खुल जाए। सुप्रीम कोर्ट की वह कोशिश नाकाम हो गई थी, पर तब तक कोरोना का कहर टूटा और धरने को 24 मार्च को लॉकडाउन की शुरुआत में हटा दिया गया। धरना हटाने का काम प्रशासन ने किया था और सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पष्ट कर दिया है कि प्रशासन खुद सार्वजनिक स्थानों को अवरोधों से मुक्त रखे, सिर्फ अदालत के कंधे पर बंदूक रखकर न चलाए।आखिरकार सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करके धरना-प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। उसने यह फैसला दिल्ली में सौ दिन से अधिक समय तक चले शाहीन बाग के उस कुख्यात धरने को लेकर दिया, जिसके चलते लाखों लोगों को परेशान होना पड़ा। क्या अच्छा नहीं होता कि यह फैसला समय रहते आता? 

इसमें कोई शक नहीं, सड़क को प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल करने से बड़ी संख्या में लोगों को परेशानी होती है और उनके अधिकारों का हनन होता है। जहां हम भारतीयों को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार है, वहीं हमें सड़क और सार्वजनिक जगहों के इस्तेमाल का भी अधिकार है। अव्वल तो लोगों को विरोध-प्रदर्शन से लोकतांत्रिक ढंग से रोकना-समझाना शासन-प्रशासन का काम है, वहीं होने वाले प्रदर्शन से दूसरे लोगों की रक्षा करना भी उसका दायित्व है। शासन-प्रशासन को अपने स्तर पर ही ऐसे प्रदर्शनों का सही समाधान खोजना चाहिए। गौर करने की बात है, जब सरकार धरना को कहीं और स्थानांतरित करने या खत्म करने में नाकाम रही, तब सड़क खुलवाने के लिए अदालत में याचिका दायर करने की जरूरत पड़ी। यह जरूरत नहीं पड़नी चाहिए थी। अदालत को ऐसे मामलों को सुलझाने में वक्त लगता है, क्योंकि कानूनी प्रावधान के तहत सबका पक्ष सुनने के बाद ही कोई फैसला संभव होता है। खैर, अब सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश के बाद सरकारों को ज्यादा सचेत रहना चाहिए। 

प्रश्न यह भी है कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जब शाहीन बाग की सड़क पर कब्जाकर धरना दिया जा रहा था, तब सुप्रीम कोर्ट ने उसे खत्म करने का आदेश देने के बजाय वहां बैठे लोगों को मनाने के लिए वार्ताकार नियुक्त करने का काम किस आधार पर किया था? क्या इसकी अनदेखी की जा सकती है कि इस अस्वाभाविक कदम से न केवल दिल्ली पुलिस सड़क खाली कराने से हिचकिचा गई थी, बल्कि रास्ते को बंद करके बैठे लोगों का दुस्साहस और बढ़ गया था? धरना-प्रदर्शन के प्रति ज्यादा संवेदनशील होने की जरूरत है। समय से पहले ही समस्या की सुनवाई करने में भलाई है। किसी विरोध के सड़क पर उतरने और समाज पर भारी पड़ने का इंतजार नहीं करना चाहिए। लोगों और संगठनों को भी अच्छी नागरिकता और परिपक्व लोकतंत्र की मिसाल पेश करनी चाहिए। जहां यह देखना जरूरी है कि धरना-प्रदर्शन करने के अधिकार का दुरुपयोग न हो, वहीं इनसे दूसरों को होने वाली परेशानी के बारे में भी सोच लेना चाहिए।अफसोस केवल यह नहीं कि एक और फैसला देरी से आया, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सार्वजनिक स्थलों पर अनिश्चितकाल तक नहीं बैठा जा सकता कहने से यह अंदेशा है कि कहीं इसकी व्याख्या इस रूप में न की जाने लगी कि प्रदर्शनकारी कुछ समय के लिए सड़क, रेल मार्ग आदि बाधित कर सकते हैं। उचित होता कि साफ तौर पर कहा जाता कि सार्वजनिक स्थलों पर एक क्षण के लिए भी कब्जा किया जाना स्वीकार्य नहीं? उचित तो यह भी होता कि सुप्रीम कोर्ट उस तरह की प्रवृत्तियों पर भी ध्यान देता, जिनके चलते लोगों को उकसाकर सड़कों पर उतारने के साथ अराजकता फैलाने की कोशिश की जाती है। यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। यह लगातार बढ़ती दिख रही है।  यह एक तथ्य है कि शाहीन बाग धरने को समर्थन देने का काम संदिग्ध इरादों वाले कई संगठनों की ओर से किया गया।


इनमें कई संगठनों के नाम भी सामने आए थे, जैसे पॉपुलर फ्रंट अॉफ इंडिया यानी पीएफआइ। इस संगठन का दफ्तर भी शाहीन बाग इलाके में ही है। पता नहीं इस संगठन की भूमिका कितनी गंभीर थी, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जो विषाक्त माहौल बनाया गया, उसके दुष्परिणामस्वरूप ही दिल्ली में भीषण दंगे हुए। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि हाथरस में हिंसा भड़काने की साजिश में भी पीएफआइ का नाम आ रहा है। यदि यह सच है कि इस संगठन को बाहर से करोड़ों रुपये की फंडिंग हुई तो इसका मतलब है कि देश विरोधी ताकतें धरना-प्रदर्शन और विरोध के बहाने देश की सुरक्षा से खेल रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को न केवल इसकी चिंता करनी चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि ऐसी ताकतों पर लगाम कैसे लगे? यदि यह सच है कि इस संगठन को बाहर से करोड़ों रुपये की फंडिंग हुई तो इसका मतलब है कि देश विरोधी ताकतें धरना-प्रदर्शन और विरोध के बहाने देश की सुरक्षा से खेल रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को न केवल इसकी चिंता करनी चाहिए बल्कि उसे ऐसी परिस्थितियॉ उत्पन्न होने के लिए सरकार तथा प्रशासन की जिम्मेदारी भी सुनिश्चित करनी चाहिए।





रिलेटेड न्यूज़

टेक ज्ञान